The concept of education is a burning topic in the updated academic field. The relevance and continuity of education lies in its presentation according to the demands of the changing environment. The nature of education has changed rapidly in recent times. The trend which has shown the most creativity and stability in the latest styles of social science is the stream of cultural writing. From George Heigl to Lynn Hunt, this type of belief has been shown. Today neo-cultural sociology is in vogue. In fact, the study of education is from rationalist and structuralist tendencies in the academic field. The importance of education is undeniably important in the crucial elements of the overall development of the individual. The concept of education has been the most discussed and competitive of all types of discourse. There have always been different views and forms of education in every society. The origin of which can be traced to the overall development of human personality. India also has a well-developed tradition of education since ancient times. In this sequence, the large mass base of Buddhist education as well as its useful nature and purpose shows its all-time importance. In the Jataka story and Buddhist literature, in the course of Buddhist education, emphasis has been laid on Sanskrit, grammar, Buddhist thought, mathematics, philosophy, medicine, crafts, ethics, environment, etc. And its usefulness has been shown by incorporating the need of the present society. In the Buddhist period, education was the means of all round development of man. Buddhist education was the only means of mental, physical, intellectual and spiritual upliftment. The relevance of Buddhist education in the present day is automatically reflected in the elements contained in it. Also, the element contained in its form proves its usefulness in the updated global context. Every modern concept, power, ideology tries to verify itself on the basis of history. History always gives legitimacy to modern concepts, so every society tries to write historiography of concepts keeping in mind its goals and objectives. Discussions about the questions of education in India can be seen with the Sanatan tradition of the times like Vedas, Puranas, Arthashastra etc. along with the Buddhist, Jain and Charvaka traditions. In today's time people are interpreting education in their own way. Today there is fierce competition in the field of education. Two integral elements of education have been described in India - spiritual and physical i.e. theoretical and practical. Therefore, the basic element of education is the overall development of human personality and the need of society or secular life. In the present article, it will be our effort to discuss the background of Buddhist education from the global level to the global level of current education and review the current thinking. Abstract in Hindi Language: अद्यतन अकादमिक क्षेत्र में शिक्षा की अवधारणा एक ज्वलंत विषय है। शिक्षा की प्रासंगिकता एवं निरन्तरता बदलते परिवेश की माॅग के अनुरुप उसकी प्रस्तुति से है। शिक्षा का स्वरुप हाल के समयों में तेजी से बदला है। समाज विज्ञान की अद्यतनशैलियों में जिस प्रवृति ने सबसे अधिक रचनात्मकता प्रदर्शित की है, तथा स्थायित्व दिखाया है- वह सांस्कृतिक लेखन की धारा है। जार्ज हिगल से लिन हंट तक ने इसप्रकार की मान्यता को दर्शाया हैं। आज नव सांस्कृतिक समाजविज्ञान प्रचलन में है। वस्तुतः शिक्षा के अध्ययन अकादमिक क्षेत्र में बुद्धिवादी एवं संरचनावादी प्रवृतियों से है। व्यक्ति के समग्र विकास के निर्णायक तत्वो में शिक्षा का महत्व निर्विवाद रुप से महत्वपूर्ण है। सभी प्रकार के विमर्श में शिक्षा की अवधारणा सबसे अधिक विमर्शित तथा प्रतिस्पर्धात्मक रही है। शिक्षा के विभिन्न मत एवं स्वरुप प्रत्येक समाज में सदैव रहा है। जिसका मूल मनुष्य के व्यक्तित्व का समग्र विकास में चिन्हित किया जा सकता है। भारत में भी प्राचीन काल से शिक्षा की विकसित व्यापक परम्परा रही है। इस क्रम में बौद्ध शिक्षा का वृहत जन आधार के साथ साथ इसके जनोपयोगी स्वरुप एवं उददेष्य इसकी सर्वकालीक महत्ता को दर्शाता है। जातक कहानी एवं बौद्ध साहित्य में बौद्ध शिक्षा के क्रम में समाज के सभी वर्ग को शिक्षा में संस्कृत, व्याकरण, बौद्ध विचार, गणित, दर्शन के अतिरिक्त चिकित्सा, शिल्प, नैतिकता, पर्यावरण आदि पर बल दिया गया हैं, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास एवं वर्तमान समाज की आवश्यकता को समाहित कर इसकी उपयोगिता को दर्शाया गया हैै। बौद्ध काल में शिक्षा मनुष्य के सर्वागिण विकास का साधन थी। बौद्ध शिक्षा मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक एवं अध्यात्मिक उत्थान का एकमात्र माध्यम था। वर्तमान समय में बौद्ध शिक्षा की प्रासंगिता उसमें निहित तत्व से स्वतः परिलक्षित होता है। साथ ही इसके स्वरुप में निहित तत्व अद्यतन वैश्विक परिपेक्ष्य में इसकी उपयोगिता को प्रमाणित करता है। प्रत्येक आधुनिक संकल्पना, शक्ति, विचारधरा अपने को इतिहास के आधार पर सत्यापित करने का प्रयास करता है। आधुनिक संकल्पनाओं को इतिहास हमेशा वैधता प्रदान करता ह, इसलिए प्रत्येक समाज अपने लक्ष्यो तथा उददेष्यों को ध्यान में रखतें हुए संकल्पनाओं का इतिहासलेखन करने का प्रयास करते है। भारत में शिक्षा के सवालों को लेकर विमर्श ऋषियों-मुनियों यथा वेद, पुराण, अर्थशास्त्र आदि समय के सनातन परम्परा के साथ साथ बौद्ध, जैन एवं चार्वाक परम्परा के साथ देख सकते है। आज के समय में शिक्षा की व्याख्याएं लोग अपने अपने तरीके से कर रहे हैं। आज शिक्षा के क्षेत्र में भयंकर प्रतियोगिता छिडी नजर आ रही है। भारत में शिक्षा के दो अभिन्न तत्व बताए गए हैं- अध्यात्मिक तथा भौतिक अर्थात सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक। अतः शिक्षा का आधारभूत तत्व मनुष्य के व्यक्तित्व का समग्र विकास एवं समाज या लौकिक जीवन की आवश्यकता को माना गया है। प्रस्तुत आलेख में बौद्ध शिक्षा की पृष्ठभूमि वर्तमान शिक्षा की वैश्विक स्तर से आॅचलिक स्तर तक की विवेचना और वर्तमान के चिंतन की समीक्षा हमारा प्रयास होगा। Keywords: नव सांस्कृतिक, बौद्ध शिक्षा, बुद्धिवाद, वैश्विक, अध्यात्मिक शिक्षा, लौकिक शिक्षा